कुंभकाल में ‘महाभद्रा’ बन जाती है ‘गंगा’, गंगाजल के स्पर्श मात्र से मिलता करोड़ों पुण्यों का फल

देहरादून। ‘पतित पावनी गंगा कुंभकाल में ‘महाभद्रा’ यानी ‘अधिक कल्याणकारी’ रूप धारण कर लेती है। इस विशिष्ट योग में गंगा जल के स्पर्श मात्र से ही मनुष्य को करोड़ों पुण्यों का फल मिल जाता है। कोई हत्यारा भी कुंभ के विशिष्ट योग में गंगा स्नान करे तो वह हत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।’ चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (युवान च्वांग) ने अपने यात्रा वृतांत में कुंभ का माहात्म्य उद्धृत करते हुए यह बात कही है। देखा जाए तो ऐसा ही है गंगा का माहात्म्य, जो आस्थावान को बार-बार धर्मनगरी आने के लिए प्रेरित करता है।
वैसे तो तमाम पौराणिक आख्यानों में कुंभ का जिक्र आता है, लेकिन सर्वप्रथम ऐतिहासिक साक्ष्य 629 ईस्वी में भारत यात्रा पर आए चीनी यात्री ह्वेन त्सांग (602-664 ईस्वी) के लेखों में ही मिलते हैं। ह्वेन त्सांग को 644 ईस्वी में प्रयाग कुंभ देखने का मौका मिला था। कुंभ वर्तमान स्वरूप में कब ढला, उसके विकास का क्रम क्या रहा, इसे लेकर विद्वजनों की अलग-अलग धारणाएं व तर्क हैं। शंकर सिद्धांत के अनुगामी तो आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित मान्यता को ही कुंभ के वर्तमान स्वरूप में विकास का कारण मानते हैं। पूर्व कुंभ मेलों के उपलब्ध विवरणों में आदि शंकराचार्य की परंपरा के दशनामी नागा संन्यासियों को ही प्रधानता दी गई है।